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insensibility क्या यही है आधुनिकता की कुंजी? संवेदनहीनता का बढ़ता दायरा

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आज का समाज एक ऐसे चौराहे पर खड़ा है जहाँ तेज़ गति से बदलती दुनिया हमें आधुनिकता के नए आयाम दिखा रही है। विज्ञान और तकनीक की प्रगति ने मानव जीवन को अभूतपूर्व सुख-सुविधाएं प्रदान की हैं। एक ओर हम चाँद पर बस्तियां बसाने की बात कर रहे हैं, मंगल पर जीवन की तलाश कर रहे हैं, वहीं दूसरी ओर हमारे आस-पास एक भयानक सच आकार ले रहा है।

 संवेदनहीनता एअर इंडिया का विमान हादसे का शिकार हुआ देश सैकड़ों लोगों की इस भीषण हादसे में जान गई यह एक ऐसा हादसा है। जिससे कई सौ परिवार सीधे तौर पर शोक में डूब गए हर छोटे बड़ा देशवासी ही नही किसी भी देश का नागरिक शर्त ये कि इंसान हो व्यथित हो गया।

लेकिन इस हादसे के बारे जब हम मीडिया का रुख देख रहे हैं तो इस बात का अंदाजा लगाना मुश्किल हो गया कि हम किसी त्रासदी के बारे में सुन रहे है या किसी मनोरंजक फिल्म की कहानी सुन रहे हैं। क्योकि एंकर इस समाचार को बड़े ही जोश में और मुस्कराते हुए सुना रहे थे। इस पर सोने पर सुहागा जो भी व्यक्ति इस हादसे की रिपोर्टिंग कर रहा था उसकी संवेदनहीनता अलग ही दिखाई दे रही थी क्योकि पीड़ित परिवारों से वह ऐसे सवाल कर रहे थे जिनका जवाब देते हुए परिवार वाले स्तब्ध थे कि इसको क्या जवाब दिया जाए।

और इन सबके चलते ये लोग एक नई त्रासदी की नींव रख रहे हैं क्योंकि इन लोगों ने इस हादसे पर दी जाने वाली प्रतिक्रियाओं को धर्म के आधार पर फैलाकर आपसी भाईचारे को नफरत की खाई से खत्म करने की एक नई क्रांति उत्पन्न कर दी जिसके चलते पीड़ित परिवारों के प्रति लोगों की संवेदनाओं को भूलकर समाजिक ताने बाने को ही छिन्न भिन्न करने में लग जाएं।

यह संवेदनहीनता इतनी गहरी होती जा रही है कि मनुष्य भीषण दुर्घटनाओं को भी अपने मनोरंजन का साधन मानने लगा है। यह एक विकट प्रश्न खड़ा करता है: क्या यही वास्तव में आधुनिकता की कुंजी है? क्या तकनीकी विकास के साथ-साथ मानवीय मूल्यों का पतन ही प्रगति की निशानी है?

हमेशा से ही मानव समाज का आधार #empathic, (सहानुभूति) और करुणा हुआ करते थे। एक-दूसरे के दुःख में शरीक होना, पीड़ा में सहायता के लिए आगे बढ़ना, और मानवीय संवेदनाओं को सर्वोपरि रखना ही हमारे अस्तित्व का प्रमाण था। लेकिन आज, सड़कों पर किसी दुर्घटना में तड़पते व्यक्ति को बचाने के बजाय, लोग अपने स्मार्टफोन निकालकर तस्वीरें और वीडियो बनाने लगते हैं। ये तस्वीरें और वीडियो सोशल मीडिया पर वायरल हो जाते हैं, और लोग इन पर लाइक और कमेंट करके अपना मनोरंजन करते हैं। यह दृश्य किसी भी संवेदनशील व्यक्ति के हृदय को विचलित कर देता है। कहाँ गया वह मानवीय स्पर्श, वह आंतरिक पुकार जो किसी को संकट में देखकर सहायता के लिए प्रेरित करती थी?

 इस संवेदनहीनता के कुछ कारण हो सकते हैं। इसमें पहला और सबसे प्रमुख कारण है

 डिजिटल दुनिया का बढ़ता प्रभाव स्मार्टफोन और सोशल मीडिया ने हमें एक ऐसी दुनिया में धकेल दिया है, जहाँ वास्तविक जीवन की संवेदनाएं धुंधली पड़ती जा रही हैं। स्क्रीन पर चल रही हिंसा, दुर्घटनाएं और त्रासदी हमें इतनी बार दिखाई जाती हैं कि वे हमारे लिए सामान्य सी लगने लगती हैं। हम भावनाओं के प्रति कठोर हो जाते हैं क्योंकि हमें हर दिन ऐसी अनगिनत छवियों और वीडियो का सामना करना पड़ता है। ‘डिसेनसेटाइजेशन’ की यह प्रक्रिया हमें वास्तविक जीवन की पीड़ा के प्रति उदासीन बना देती है। हम एक ‘स्पैक्टेटर सोसाइटी’ बन गए हैं, जहाँ हम दर्शक बनकर सब कुछ देखते हैं, लेकिन शायद ही कभी हस्तक्षेप करते हैं।

 बढ़ता व्यक्तिवाद आधुनिकता ने हमें आत्मनिर्भर और स्वतंत्र बनने के लिए प्रेरित किया है, जो अपने आप में गलत नहीं है। लेकिन यह व्यक्तिवाद अक्सर स्वार्थ और उदासीनता में बदल जाता है। लोग अपने ही दायरे में सिमट कर रह गए हैं, या किसी एक व्यक्ति को ही अपने जीवनदाता, प्रतीक या हीरो के रुप में देखना उसके अच्छे बुरे को मानना ही अपना धर्म समझ लेना उन्हें दूसरों की समस्याओं से कोई सरोकार नहीं रहता। ‘मुझे क्या फर्क पड़ता है?’ की मानसिकता ने समाज में गहरी जड़ें जमा ली हैं। भीड़ में भी अकेलापन महसूस होना और दूसरे की पीड़ा पर अपनी आंखें फेर लेना इसी व्यक्तिवादी सोच का परिणाम है।

मीडिया का नकारात्मक चित्रण और सनसनीखेज खबरें  कई बार मीडिया दुर्घटनाओं और त्रासदियों को इस तरह से प्रस्तुत करता है कि वे मनोरंजन का हिस्सा बन जाती हैं। तथ्यों की गहराई में जाने के बजाय, सनसनीखेज सुर्खियाँ और ग्राफिक इमेजरी पर जोर दिया जाता है, जिससे दर्शकों की संवेदनाएं कुंद हो जाती हैं। यह सब टीआरपी की होड़ में होता है, लेकिन इसका मानवीय मूल्यों पर घातक प्रभाव पड़ता है। जब दुर्घटनाएं मात्र संख्याएं बनकर रह जाती हैं, तो उनके पीछे की मानवीय पीड़ा गौण हो जाती है।

यह कैसी विडंबना है कि जिस आधुनिकता को हम बेहतर जीवन का मार्ग मानते हैं, वही हमें मानवीयता से दूर कर रही है। क्या हम एक ऐसे भविष्य की ओर बढ़ रहे हैं जहाँ भावनात्मक बुद्धिमत्ता (Emotional Intelligence) का कोई स्थान नहीं होगा? जहाँ करुणा, सहानुभूति और प्रेम जैसे मानवीय मूल्य केवल किताबों में सिमट कर रह जाएंगे? यह एक भयावह विचार है।Fiverr

इस बढ़ती संवेदनहीनता को रोकना हमारी सामूहिक जिम्मेदारी है। इसके लिए हमें कुछ ठोस कदम उठाने होंगे:

  • शिक्षा प्रणाली में बदलाव: बच्चों को बचपन से ही नैतिक मूल्यों, सहानुभूति और सामाजिक जिम्मेदारी का पाठ पढ़ाना आवश्यक है। किताबी ज्ञान के साथ-साथ भावनात्मक और सामाजिक कौशल का विकास भी उतना ही महत्वपूर्ण है।
  • पारिवारिक मूल्यों को सुदृढ़ करना: परिवार वह पहली पाठशाला है जहाँ बच्चे मानवीय मूल्यों को सीखते हैं। माता-पिता को बच्चों को दूसरों के प्रति संवेदनशील बनाना चाहिए और उन्हें सहायता करने के लिए प्रेरित करना चाहिए।
  • मीडिया की जिम्मेदारी: मीडिया को अपनी शक्ति का सकारात्मक उपयोग करना चाहिए। सनसनीखेज खबरों के बजाय, उन्हें मानवीय कहानियों, समाधानों और सकारात्मक पहलुओं को उजागर करना चाहिए। दुर्घटनाओं को संवेदनशील तरीके से प्रस्तुत करना चाहिए, न कि मनोरंजन के रूप में।
  • सामाजिक जागरूकता अभियान: समाज में संवेदनशीलता को बढ़ावा देने के लिए व्यापक अभियान चलाए जाने चाहिए। लोगों को यह याद दिलाना होगा कि हम एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं और एक-दूसरे की मदद करना हमारा मानवीय कर्तव्य है।
  • कानूनी और नैतिक ढांचा: उन लोगों के खिलाफ कठोर कानूनी प्रावधान होने चाहिए जो दुर्घटना पीड़ितों की मदद करने के बजाय उन्हें परेशान करते हैं या उनका वीडियो बनाते हैं। साथ ही, नैतिक दायित्वों पर भी जोर दिया जाना चाहिए।
  • डिजिटल साक्षरता और संयम: हमें डिजिटल दुनिया के खतरों के प्रति जागरूक होना चाहिए। सोशल मीडिया का उपयोग संयम के साथ करना चाहिए और अनावश्यक रूप से नकारात्मक सामग्री साझा करने से बचना चाहिए।

आधुनिकता का अर्थ केवल तकनीकी प्रगति नहीं है, बल्कि यह मानवीय मूल्यों और नैतिक उत्थान का भी प्रतीक होनी चाहिए। यदि हम अपनी संवेदनशीलता खो देंगे, तो हमारी सारी वैज्ञानिक उपलब्धियाँ व्यर्थ हो जाएंगी। एक ऐसा समाज जहाँ लोग एक-दूसरे की पीड़ा को मनोरंजन का साधन मानते हैं, वह कभी भी सच्चा और स्थायी विकास प्राप्त नहीं कर सकता।Fiverr

हमें यह समझना होगा कि सच्ची प्रगति तभी होती है जब हम तकनीकी रूप से आगे बढ़ने के साथ-साथ नैतिक और मानवीय रूप से भी विकसित होते हैं। संवेदनशीलता हमारी मानवीयता का मूल है। इसे खोना, हमारी आत्मा को खोने जैसा है। इसलिए, यह समय है कि हम आत्मचिंतन करें और इस बढ़ती संवेदनहीनता की खाई को पाटने का प्रयास करें, ताकि हम एक ऐसे समाज का निर्माण कर सकें जहाँ आधुनिकता और मानवीयता एक साथ फल-फूल सकें। तभी हम कह सकते हैं कि हमने वास्तव में आधुनिकता की सही कुंजी पाई है।

 

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