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heritage celebration लोकमाता अहिल्याबाई होलकर, जीवन और विरासत का भव्य उत्सव

heritage celebration नई दिल्ली, 15 मई 2025 – साहित्य अकादमी, नई दिल्ली में गुरुवार को एक गरिमामय कार्यक्रम का आयोजन किया गया, जहाँ “द लोकमाता: लाइफ एंड लेगेसी ऑफ अहिल्या बाई होलकर” नामक महत्वपूर्ण पुस्तक का विमोचन हुआ। डॉ. प्रितीश और प्रो. बंदना झा द्वारा संपादित और प्रकाशित इस पुस्तक में सात विद्वानों के शोध आधारित लेख संकलित हैं, जो लोकमाता अहिल्याबाई के जीवन, शासन और सांस्कृतिक योगदान को गहराई से समझने का प्रयास करते हैं।

कार्यक्रम का संचालन डॉ. अपर्णा ने किया। कार्यक्रम की शुरुआत प्रो. बंदना झा के विद्वत्तापूर्ण और प्रेरणादायक स्वागत भाषण से हुई, जिसमें उन्होंने पुस्तक की रचना-प्रक्रिया, संरचना और उद्देश्यों पर विस्तार से प्रकाश डाला। उन्होंने कहा कि यह पुस्तक केवल ऐतिहासिक तथ्यों का संग्रह नहीं, बल्कि लोकमाता की बहुआयामी छवि को समग्र रूप में प्रस्तुत करने का एक प्रयास है। प्रो. झा ने पुस्तक के सभी सात लेखकों—डॉ. अपर्णा, सुकृत बनर्जी, संदीप, डॉ. प्रितीश, चिराग, शुभम शेखर और स्वयं प्रो. बंदना झा—के कार्यों को विस्तार से रेखांकित करते हुए बताया कि कैसे हर अध्याय लोकमाता के जीवन के एक विशेष पक्ष को सामने लाता है।

उन्होंने अपने भाषण में यह भी बताया कि कैसे अहिल्याबाई के शासन की मूल आत्मा न्यायप्रियता, समावेशिता और सांस्कृतिक पुनरुत्थान में निहित थी। उन्होंने इस बात पर भी बल दिया कि आज के भारत में जब नीति और नेतृत्व पर प्रश्नचिह्न खड़े हो रहे हैं, तब अहिल्याबाई जैसे आदर्श शासकों का स्मरण और अध्ययन अत्यंत आवश्यक है। प्रो. झा ने लेखकों की युवा पीढ़ी से अपेक्षा जताई कि वे केवल ऐतिहासिक जानकारी तक सीमित न रहें, बल्कि इन उदाहरणों से प्रेरणा लेकर भारत की सांस्कृतिक विरासत को पुनर्स्थापित करने में भागीदार बनें। उन्होंने इस पुस्तक को ‘लोकनीति और सांस्कृतिक चेतना’ का दस्तावेज बताया।

इस अवसर पर राष्ट्रीय अनुसूचित जनजाति आयोग (NCST) की सदस्य आशा लाखड़ा ने अपने संबोधन में लोकमाता अहिल्याबाई होलकर को आदर्श जननायिका के तौर पर चित्रित किया। उन्होंने कहा कि अहिल्याबाई का शासन केवल प्रशासनिक दक्षता का उदाहरण नहीं था, बल्कि वह एक समावेशी और संवेदनशील समाज निर्माण की दिशा में ठोस प्रयास था।

उन्होंने विशेष रूप से अहिल्याबाई की कर-नीति और चुंगी व्यवस्था (toll system) की सराहना की, जिसमें गरीब और वंचित तबकों पर कर का भार नहीं डाला गया। उन्होंने कहा कि यह नीति विशेष रूप से PVTGs (Particularly Vulnerable Tribal Groups) जैसे समुदायों के लिए आज भी मार्गदर्शक हो सकती है, जिनके अधिकार और हित अक्सर आधुनिक योजनाओं में उपेक्षित रह जाते हैं।

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के अखिल भारतीय प्रचार प्रमुख सुनील आंबेकर ने लोकमाता अहिल्याबाई होलकर की प्रशंसा करते हुए उन्हें भारतीय संस्कृति की जीवंत मूर्ति बताया। उन्होंने कहा कि देवी अहिल्याबाई के शासनकाल को केवल ऐतिहासिक दृष्टि से नहीं, बल्कि समकालीन भारत की नैतिक और सांस्कृतिक चुनौतियों के समाधान के रूप में देखे जाने की आवश्यकता है।

आंबेकर ने अपने वक्तव्य में तीन मुख्य बिंदुओं पर ज़ोर दिया:

  1. संस्कृति आधारित नेतृत्व – उन्होंने कहा कि अहिल्याबाई का शासन केवल राजनैतिक नहीं, बल्कि सांस्कृतिक पुनर्जागरण का प्रतीक था।
  2. मूल्यों पर आधारित राजनीति – उन्होंने कहा कि आज की राजनीति में जहां अवसरवादिता और तात्कालिक लाभ को प्राथमिकता दी जा रही है, वहां अहिल्याबाई जैसी मूल्य-आधारित राजनीति की आवश्यकता है।
  3. धर्मनिष्ठ कूटनीति और लोकसेवा – आंबेकर ने उल्लेख किया कि अहिल्याबाई की नीतियाँ आक्रामक नहीं थीं, बल्कि समन्वयकारी और रचनात्मक थीं।

अपने अभिभाषण के अंत में उन्होंने कहा कि लोकमाता अहिल्याबाई का जीवन इस बात का साक्षी है कि जब नेतृत्व चरित्र से जुड़ता है, तब शासन सेवा बन जाता है और राजनीति तपस्या।”

कार्यक्रम के अंत में पुस्तक के संपादक डॉ. प्रीतीश ने अत्यंत संवेदनशील शब्दों में धन्यवाद ज्ञापन प्रस्तुत किया। उन्होंने कहा कि यह पुस्तक केवल ऐतिहासिक तथ्यों का संकलन नहीं है, बल्कि यह एक साधना हैउस महान नारी के व्यक्तित्व और कर्तृत्व को समझने और सहेजने की, जिन्होंने शासन को सेवा का माध्यम बनाया।”

उन्होंने साहित्य अकादमी, मुख्य अतिथि श्री सुनील आंबेकर और विशिष्ट अतिथि आशा लाखड़ा का आभार व्यक्त किया। उन्होंने प्रो. बंदना झा को ‘इस परियोजना की सूत्रधार’ बताते हुए उनके सतत मार्गदर्शन, विद्वत्ता और संगठनात्मक सहयोग के लिए विशेष धन्यवाद दिया। डॉ. प्रीतीश ने पुस्तक के सभी सह-लेखकों—डॉ. अपर्णा, सुकृत बनर्जी, संदीप, चिराग, शुभम शेखर और प्रो. बंदना झा—के शोध, विश्लेषण और दृष्टिकोण की सराहना करते हुए कहा कि यह पुस्तक “सात दृष्टिकोणों का एक समवेत स्वर” है।

अपने वक्तव्य के अंत में उन्होंने युवाओं से आह्वान किया कि वे केवल पश्चिमी सोच को ही अपना आदर्श न बनाएं, बल्कि भारतीय परंपरा की महान विभूतियों से भी प्रेरणा लें, और राष्ट्रनिर्माण में अपनी भूमिका को पहचानें।

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