मेरठ(10 अक्तूबर 2015)- कौन कहता है कि बीजेपी के नेता संगीत सोम सांप्रदायिक हैं? ये क्या बात हुई कि महज़ दंगे भड़काने और सैकंड़ों मासूम लोगों के दंगे में मरवाने की कोशिश के आरोपी को आप सांप्रदायिक कह दें! कभी समाजवादी पार्टी से जुड़े रहे संगीत आजकल बीजेपी में हैं, यानि अपने निजी फायदे के लिए सियासत के हर पेंच समझने वाले तेज़ तर्रार नेता!
हो सकता है कि बेचारे संगीत सोम अपनी पार्टी को जीवन देने के लिए इस तरह की गतिविधियों में लिप्त हो गये हों! लेकिन इसका क़तई ये मतलब नहीं कि उनको सिर्फ सांप्रदायिक ही समझा जाए! देखिए हर पार्टी की एक लाइन होती है, उसी को ध्यान में रखते हुए पार्टी और पार्टी के नेताओं को लाइन ऑफ एक्शन बनाना होता है! दंगे भड़काना, बेगुनाहों को दंगे के नाम पर मौत बांटना हो सकता है कि किसी सियासत का हिस्सा रही हो!
लेकिन सिर्फ इन आरोपों के आधार पर संगीत सोम को सांप्रदायिक कह देना उचित नहीं होगा। आपको शायद पता भी न हो कि संगीत सोम जैसा सैक्यूलर इस देश में मिलना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन है! भला जो शख्स किसी मुस्लिम, खासतौर से गोश्त के कारोबोरी के साथ मिलकर कोई बूचड़खाना लगाने के लिए खुद को बतौर डॉरेक्टर पेश कर डाले? उसको भला कैसे सांप्रदायिक कहा जा सकता है? इतना ही नहीं संगीत सोम के बारे में कहा जा रहा है कि उन्होने बूचड़खाना खोलने के लिए अपने एक मुस्लिम पार्टनर के साथ मिलकर अलीगढ़ के पास ज़मीन तक खरीदी। जिस पर अल दुआ नाम की एक कंपनी बनाई गई जिसका काम बुचड़खाना चलाकर वहां पर बेजुबान मवेशियों को काटना और उससे बेतहाशा कमाई करना था। 
तो भला पैसा कमाना कहां गलत है? अगर संगीत सोम ने पैसा कमाने के लिए बूचड़खाने और बेज़ुबानों के खून का सौदा कर ही लिया तो इसमें ताज्जुब की भला क्या बात हुई? जिस शख्स पर बेगुनाहों को दंगों में मौत बांटने का आरोप हो, जिस पर बेगुनाह मासूमों का कत्लेआम और खूनखराबा कराने का आरोप हो उसके लिए बूचड़खाने से बेहतर भला क्या बिज़नेस हो सकता है? रहा सवाल उनके भक्तों को तो जनाब उनको तो कभी किसी क़ातिल में कोई कमी नज़र नहीं आती! ये अलग बात है कि संगीत सोम भले ही किसी समाज के हमदर्द होने का स्वांग भरकर अपनी रोटियां सेंक रहे हों लेकिन इतना तो तय है कि जनता यह भी जानती है कि समाज के आपसी प्रेम के दुश्मनों का असल ठिकाना कहां है?