Breaking News

वादों की नाकामी vs पप्पू की कामयाबी ? चुनाव में बीजेपी-कांग्रेस या किसी दल के बदलाव की नहीं, व्यवस्था के बदालाव है ज़रूरत !

pappu vs राहुल नई दिल्ली (25 अक्तूबर 2017)- दुनियां के सबसे बड़े लोकतंत्र, भारत में यूं तो एक बार चुनाव होने बाद दोबारा चुनाव पांच साल बाद ही होने की व्यवस्था है। लेकिन भारत के संघीय ढांचे और लोकतांत्रिक व्यवस्था के तहत साल भर कहीं न कहीं देश के किसी न किसी हिस्से में बड़े चुनाव होते रहते हैं। गुजरात और हिमाचल चुनावों की तैयारी में हर सियासी दल जनता को वही घिसे पिटे वादे और दावे पेश कर रहा है जिनकी गूंज लोकसभा चुनावों के बाद अभी तक उसके कानों में मौजूद है। उत्तर प्रदेश में स्थानीय निकाय चुनावों की तैयारी ने सूबे की जनता की विधानसभा चुनाव की थकान को उतरने का भी मौका नहीं दिया। दिल्ली एमसीडी चुनाव, मुंबई के बीएमसी चुनाव हो या फिर बंगाल या किसी दूसरे राज्य की विधानसभा या ग्रामं पंचायत या नगर पालिका चुनाव, ये सभी किसी छोटे देश के आम चुनावों से न सिर्फ बड़े होते बल्कि दिलचस्प और कांटे की भी।
लेकिन हमारे देश में कुछ चुनाव स्थानीय मुद्दों पर लड़े जाते हैं तो कुछ राष्ट्रीय, लेकिन इन सभी चुनावों में मुद्दों के ऊपर अक्सर बिरादरी और धर्म का असर ज़्यादा देखने को मिलता रहा है।
उधर इन दिनों एक बार फिर देश, ख़ासतौर से गुजरात की राजनीति का पारा चढ़ा हुआ हुआ है। सियासी महाभारत का सैट सजा हुआ है। बीजेपी की सियासी सेना मोदी की कमान में अपने पुराने और सबसे मज़बूत क़िले के बचाव की कोशिश में है जबकि कई साल से सत्ता को तरस रही और लगातार हार के बाद कांग्रेस एक बार अपने पिटे हुए मोहरे पर ही दांव खेलती नज़र आ रही है। कांग्रेस की तरफ से राहुल लगातार राजनीतिक पासे फेंक रहे हैं। उधर बीजेपी की तरफ से देश के पीएम बतौर कार्यकर्ता न सिर्फ क़िले को बचाने में लगे हैं बल्कि उनके सामने 2019 की चुनौतती भी साफ झलक रही है।
इस मौक़े पर अगर जनता की मजबूरी का ज़िक्र करें, तो उसके पास न पहले कोई विकल्प था न आज। कभी कांग्रेस तो कभी बीजेपी या फिर कोई क्षेत्रीय दल सत्ता तक पहुंच जाता है। लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं की मजबूरियों के तहत सबसे कम सीट पाने वाला भी जोड़तोड़ और किसी दूसरे के समर्थन से सरकार बनाने में कामयाब हो जाए तो जनता भला क्या करे। हालांकि नोटा यानि किसी उम्मीदवार को रिजैक्ट करने की पॉवर वोटर को मिली तो है। लेकिन राजनीतिक दलों की राजनीति के आगे जनता हमेशा छली ही जाती रही है।
जबकि सच्चाई यह भी है जो पार्टी विपक्ष में रह कर बड़े दावे करती है वही पार्टी सत्ता में आते ही ना जाने कैसे गूंगी होकर रह जाती है। इसकी गहराई में जाने पर पता लगता है कि जो योजनाएं या घोषणाएं राजनीतिक ज़ुबान से अदा की गईं उनको लागू करने वाली अफसरशाही या ब्योरोक्रेसी तो वही है जो पिथली सरकार में थी। बीस-बीस, तीस-तीस साल से एक ही विभाग की एक ही सीट पर जमे क्लर्क से लेकर अफसरों तक के हाथों से जब घोषणाओं और दावों की फाइलों के साथ बल पूर्वक जो बर्ताव होता है उसका नतीजा जनता हमेशा ही देखती आई है। इसी तरह की तमाम समस्याओं के लिए सत्ता परिवर्तन के बजाए व्यवस्था के बदलाव की ज़रूरत महसूस होने लगी है।
जहां तक बात राजनीति की है भले ही राष्ट्रीय स्तर पर सबसे पुरानी और बड़ी पार्टी कांग्रेस के अस्तित्व को चुनौती देती भारतीय जनता पार्टी ने कांग्रेस मुक्त नारा देकर न सिर्फ सियासी बदलाव की बात की है बल्कि लोकसभा से लेकर कई राज्यों तक में कांग्रेस का सत्ता मुक्त तो कर ही दिया है। दिलचस्प बात तो यह है कि जिस पीआर कपंनी ने बीजेपी के लिए काम करते हुए कांग्रेस मुक्त नारा दिया था उसी को बाद में कांग्रेस ने अपनी डूबती नय्या को पार लगाने का ठेका कथिततौर 400 करोड़ में दे दिया था। अब इसे कांग्रेस की मजबूरी कहें या नेहरु परिवार की अंधभक्ति, जिस पप्पु को सियासत से रू ब रू कराने वाली पीआर कंपनी ने बीजेपी के लिए काम करते हुए कांग्रेसी उपाध्यक्ष को बिल्कुल ग़ैर संजीदा बना कर रखा दिया था। उसी के सहारे बाद में कांग्रेस ने अपनी छवि निर्माण का सपना देखना शुर कर दिया था। देश की सबसे पुरानी पार्टी के इससे बुरे और क्या दिन होंगे कि वो जनता और अपने कार्यकर्ता से सीधे संवाद करने के बजाए पीआर कंपनी के सहारे सत्ता तक पहुंचने की कोशिश कर रही है।
अगर फिलहाल क्षेत्रीय दलों की चर्चा को दरकिनार करते हुए सिर्फ बीजेपी और कांग्रेस की ही बात करें तो कांग्रेस की नय्या खिवनहार राहुल गांधी का मुक़ाबला मोदी से कराने की कोशिश की जाती रही है। लेकिन अफसोस हर बार राहुल मैदान के बाहर ही खुद के लंगोट में उलझकर गिरते देखे गये हैं। जबकि मोदी का मुका़बला कभी राहुल से हो ही नहीं पाया है। मोदी के सामने खुद मोदी की खड़े नज़र आते हैं।वैसे भी पीएम बनने से पहले मोदी के पास खोने के लिए ज़्यादा कुछ नहीं था, और अब जो है वो सब खोने के लिए ही है, पाने को क्या बचा है? दूसरी तरफ राहुल ने अभी तक पाया ही क्या है? जबकि राहुल एक बड़ी विरासत के साथ सियासत में आए नेहरु, इंदिरा और राजीव के नाम के सहारे के बावजूद उनकी परफोर्मेस ने अमिताभ के अभिषेक और फिरोज़ के फरदीन की यादें ताज़ा कर दीं। वैसे भी परिवार और विरासत का सहारा चांस दिला सकता है कामयाबी की गांरटी नहीं। उसके लिए ख़ुद में भी कुछ होना चाहिए। ऐसे में सवाल यही उठता है कि भले ही धो पोछ कर पप्पु को सत्ता तक ले भी आए तो क्या बाद में दुनियां के सबसे बड़े लोकतंत्र को एक बेहतर मार्गदर्शक मिल पाएगा ?
दरअसल मोदी ने चुनाव से पहले और चुनाव के बाद जितने वादे किए हैं, जितनी उम्मीदें जगाई हैं, उनकी लिस्ट ही मोदी को परेशान करने के लिए काफ़ी है, उसके लिए न किसी राहुल की ज़रूरत है न राहुल वहां पहुंच सके हैं! मौदी की सबसे बड़ी चुनौती है वो ख़ुद यानि उनके वादे और वो सपने जो जनता को दिखाए गये थे। ज़ाहिर है, देश को चमकाने के, रोज़गार के, काला धन वापस लाने के, किसानों की आमदनी दोगुनी करने, मेक इन इंडिया के, स्मार्ट सिटी बसाने जैसे जो वादे अधूरे पड़े हैं वही मोदी की मुसीबत बन सकते हैं। सच्चाई ये है कि 2014 वाले मोदी को देश को बताना होगा कि ये सारे काम पूर्ण बहुमत के बावजूद क्यों नहीं हुए और 2019 के मोदी ये सारे काम कैसे कर लेंगे? मोदी पार्ट-2 के लिए सबसे बड़ी चुनौती मोदी पार्ट-1 से पैदा होने वाली निराशा ही बन जाएगी। लोग अक्सर भूल जाते हैं कि जनता चुनाव में कई अलग अलग कारणों से अलग-अलग तरीक़े से वोट डालती है, लोग राहुल गांधी को जिताने के लिए वोट भले न डालें, मगर कई बार लोग हराने के लिए भी वोट डालते हैं। यही मोदी के चुनौती है जबकि राहुल की नाकामी के बावजूद यही ख़बर उनके लिए गुड न्यूज़ भी। और शायद इसी ख़ुशफहमी में कांग्रेस और राहुल गांधी जनता से संवाद के बजाए इस इंतज़ार में हैं कि कब मोदी विरोधी लहर चले और कब उनकी लॉटरी खुले!!!!

About The Author

आज़ाद ख़ालिद टीवी जर्नलिस्ट हैं, सहारा समय, इंडिया टीवी, वॉयस ऑफ इंडिया, इंडिया न्यूज़ सहित कई नेश्नल न्यूज़ चैनलों में महत्वपूर्ण पदों पर कार्य कर चुके हैं। Read more

Related posts

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *