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चुनावों में हेयर डाई, शैंपु या फिर गोरा बनाने वाली क्रीम की तर्ज पर तय होगा देश और जनता का भविष्य!!

indian politicsचुनावी वादों के बावजूद आपके एकाउंट में अब तक 15 लाख रुपए क्यों नहीं आए..? क्या कालाधन विदेशों से वापस आ गया..? एक सिर के बदले कई पाकिस्तानियों के सिर लाए जाने लगे..? क्या धारा 370 हटा दी गई..? (read full story at http://www.oppositionnews.com  ) कुछ इसी तरह के दूसरे कई सवालों के जवाब बिल्कुल ऐसे हैं जैसे कि गोरा करने की क्रीमों के इतने विज्ञापनों के बावजूद मिशेल ओबामा और विलियम बहने अब तक काली क्यों हैं…? और बालों को झड़ने से रोकने वाले इतने तमाम शैंपुओं के विज्ञापनों की मौजूदगी में अनुपम खेर और गोरवाचौफ के सिर बाल कहां चले गये..???
दरअसल ये सवाल इसलिए ज़हन में आए हैं कि सुनने में आ रहा है कि पिछले बार के बिहार उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों और इस बार राजस्थान, महाराष्ट्र, दिल्ली, हरियाणा विधानसभा चुनावों के अलावा लोकसभा चुनावों में कांग्रेस के नाकाम .युवराज ने आने वाले उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों के लिए जनता के भरोसे के बजाय विज्ञापनों कंपनी के दम पर कामयाब होने की सोची है। (read full story at http://www.oppositionnews.com  ) उन्होने इस बार उसी राजनीतिक विज्ञापन कंपनी को अपनी नय्या पार लगाने के ठेका दे दिया है जिनके बारे में चर्चा है कि इस बार मोदी सरकार उसी कंपनी की देन है।
खैर इससे जनता को क्या..? लेकिन क्या इस बार राहुल बाबा जनता के प्यार और भरोसे पर राजनीति करना चाहते हैं या फिर बार बार की नाकामी से हताश होकर इस बार खुद को कामयाब करने के लिए विज्ञापन कंपनी के झूठे वादों औऱ जनता को खोखले ख्बाद दिखाकर सत्ता तक पहुंचना चाहते हैं ? (read full story at http://www.oppositionnews.com  )क्योंकि कहा यही जा रहा है कि लोकसभा चुनावों में जो वादे किये गये थे वो मैनोफैस्टो का नहीं बल्कि मार्किटिंग का हिस्सा थे !
ऐसे मे जनता के मन से सवाल उठना लाज़मी है कि क्या अब कांग्रेस भी झूठ और खोखले दावों के दम पर विज्ञापन और मार्किटिंग कंपनी के रोडमैप के आधार पर उत्तर प्रदेश चुनावों में उतरेगी या फिर अपने कार्यकर्ताओं की मेहनत और जनता के भरोसे पर सत्ता तक जाना चाहेगी?
दरअसल अगर देखा जाए तो दौर के बदलाव का असर राजनीति पर भी देखा जा रहा है। एक ज़माना था जब अपने नेता को देखने भर की लालसा लिये जनता की भीड़ उमड़ पड़ती है। जिस मैदान में नेता आते थे उसके आसपास तक की इमारतों की छतों और पेड़ों तक पर लोग चढ़कर अपने नेता पर भरोसे और अपने प्यार का सबूत देते थे। (read full story at http://www.oppositionnews.com  ) लेकिन नेताओं की साख गिरी तो उसी भीड़ को जुटाने के लिए पॉलिटिकल पार्टियों को भीड़ जुटाने वाले ठेकेदारों और जनता को पैसा अदा करना पड़ने लगा।
चुनावी मौसम में जनता के लिए अपने वादों के पिटारे के नाम पर मैविफैस्टो जारी किये जाते थे। जीतने वालों के वादों की सच्चाई के आधार पर जवाबदही तय होती थी और जनता अगले चुनाव में उसी के आधार पर रिपोर्ट कार्ड बनाकर सत्ताधारी को रातों रात पैदल तक देती थी। (read full story at http://www.oppositionnews.com  ) और सड़क से उठाकर रातों किसी को गद्दीनशीं कर देती थी।
ये वो ज़माना था जब दुनियां के सबसे बड़े लोकतंत्र में सरकारों के चुनने और सरकारों के बदलने में जनता का सीधा रोल महसूस किया जाता था। चाहे एमरजंसी के बाद इंदिरा गांधी जैसी ताक़तवर नेता को सड़क ला खड़ा करने का मामला हो, वीपी सिंह के नेतृत्व में पूर्ण बहुमत वाली राजीव सरकार की नींव हिलाने का इतिहास हो, या फिर राम मंदिर के नाम पर सत्ता तक जाने वालों की जनसरोकारों पर नाकामी के बाद जनता द्वारा बाहर का रास्ता दिखाया जाना..। (read full story at http://www.oppositionnews.com  ) हर चुनाव के बाद भारतीय लोकतंत्र की सुंदरता और जनता की पंचायत के अंतिम फैसले की ताक़त ता एहसास होता रहा है।
चाहे पिछले बिहार विधानसभा चुनाव हो या यूपी विघानसभा चुनाव या फिर इस बार के राजस्थान, महाराष्ट्र, हरियाणा, बिहार या फिर लोकसभा चुनाव जिनमें राहुल गांधी जैसे कथित युवा नेता को जनता ने हर बार औक़ात बता दी। साथ ही इस बारे के लोकसभा चुनावों में भी पिछले दस साल से कांग्रेसी कार्यशैली, विपक्ष के बिखराव के मुक़ाबले में बीजेपी, संघ की रणनीति और मोदी के चेहरे को स्वीकारते हुए जनता ने एक बड़ा फैसला सुनाया और एक चाय वाले को दिल्ली की कमान सौंप दी। (read full story at http://www.oppositionnews.com  ) इस सारे गेम में इस बार जो सबसे बड़ा बदलाव देखा गया लो था सोशल मीडिया का उपयोग।
लेकिन इस बार मारिकिटिंग कंपनियों के दखल ने लोकतंत्र के लिए बड़ा खतरा पैदा कर दिया है। जनता के पिछले तमाम फैसलों से अलग इस बार के लोकसभा चुनावों के नतीजों का श्रेय सीधे जनता को न दे कर इलैक्शन कंम्पेनरों को दिया गया।
हालांकि जनता ने अपने फैसलों से ये फिर साबित कर दिया कि इस देश में इलेंक्शन कंपेनर और चुनावी मार्किटिंग कभी कामयाब नहीं हो सकती। और लोकसभा चुनावों के बाद दिल्ली और बिहार में उसी बेजेपी को नकार दिया गया जिसकी कामयाबी को कंपेनरों की कामयाबी कहा जा रहा था। (read full story at http://www.oppositionnews.com  ) हालांकि इसी मार्किटिगं ग्रुप के प्रोपैगेंडे की मदद से बिहार और दिल्ली चुनावों में भी जनता के बड़े फैसले को बाद में इलैक्शन कंपेनरों की सूझबूझ का नाम दिया जाने लगा।
लेकिन सवाल ये पैदा होता है कि लोकसभा चुनावों में कांग्रेस की नाकामी और बेअसर विपक्ष की छवि से त्रस्त जनता ने जिस बीजेपी को चुना था। उसी बीजेपी को कोई इलैक्शन कंपेनर अपनी मार्किटिगं में बेहद कामयाब पार्टी बता रहा था तो भला बिहार चुनाव में वही कंपेनर बीजेपी को नाकाम साबित करने के लिए किसी दूसरे के लिए विज्ञापन करता क्यों देखा जाता है? (read full story at http://www.oppositionnews.com  ) तो क्या दुनियां के सबसे बड़े लोकतंत्र में जनता और देश का भविष्य तय करने वाला चुनाव भी अब टीवी पर विज्ञापन को देखकर बालों के लिए शैंपु या फिर गोरा बनाने के लिए क्रीम बेचने वालों के झांसे की तरह करना होगा।
बहरहाल पिछले कुछ समय से देश में चल रहे चुनावी माहौल में अब उत्तर प्रदेश विधानसभा के आने वाले चुनावों को लेकर सभी सियासी दल बेहद उत्साहित और मायूसी के मिलेजुले दोर से गुज़र रहे हैं। किसी को सत्ता से बाहर जाने का डर है तो किसी को फिर से वापसी का इंतज़ार। लेकिव पिछले लगभग तीन दशक से उत्तर प्रदेश में हाशिये पर पड़ी कांग्रेस को न सिर्फ अपने वजूद की फिक्र है बल्कि अपने कथित युवा नेता की लगातार नाकामियों की डबल हैट्रिक को रोकने का सवाल भी। (read full story at http://www.oppositionnews.com  ) ऐसे में उसके हमेशा की तरह नाकाम रहे रणनितिकारों ने अगर इलैक्शन कंपेनर के नाम पर अरबों रुपए कमा चुकी इस राजनीतिक विज्ञापन ऐजेंसी को कुछ कमीशन लेकर (जैसा कि कई कांग्रेसियों का इतिहास भी रहा है) तो कोई ताज्जुब नहीं। लेकिन ये सच्चाई है कि जनता चुनावों में किसी भी सियासी दल या नेता का अपने विवेक से ही रिपोर्ट कार्ड तैयार करती है न कि विज्ञापन देखकर शैंपु खरीदने जैसा नासमझी का फैसला।
(लेखक आज़ाद ख़ालिद टीवी पत्राकर हैं सहारा समय, इंडिया टीवी, इंडिया न्यूज़ समेत कई राष्ट्रीय चैनलों में प्रमुख भूमिका में कार्य कर चुके हैं, वर्तमान में http://www.oppositionnews.com  के संपादक हैं। )

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आज़ाद ख़ालिद टीवी जर्नलिस्ट हैं, सहारा समय, इंडिया टीवी, वॉयस ऑफ इंडिया, इंडिया न्यूज़ सहित कई नेश्नल न्यूज़ चैनलों में महत्वपूर्ण पदों पर कार्य कर चुके हैं। Read more

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