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एनडीटीवी पर बैन कोई एक दिन का फैसला नहीं…?

security for journalist3 मई 2011 को मेरे, मेरे 80 साल के पिता (जो कि केंद्र सरकार से सेवानिवृत कर्मचारी) और मेरे अख़ाबर को छापने वाले प्रिंटर के खिलाफ गाजियाबाद के कई थानों में कई एफआईआर दर्ज करा दीं गईं। साथ ही हमारे हिंदी अख़बार को उत्तर प्रदेश सरकार ने बैन कर दिया। इसके अलावा हमारे घर की बिजली और पानी तक काट दिया गया। जिसके बाद पूरे शहर के बुद्धीजीवि वर्ग ने इसका विरोध किया और सभी राजनीतिक दलों के सम्मानित नेताओं ने सरकार की मनमानी का विरोध किया। चाहे जनाब भारतेंदु शर्मा जी हो या फिर श्री के.सी त्यागी जी या फिर श्री कुंवर अय्यूब अली, इन सभी लोगों ने हमारा न सिर्फ हमारा समर्थन किया बल्कि उत्तर प्रदेश सरकार की मशीनरी को आड़े हाथों लिया। हांलाकि बाद में गाजियाबाद पुलिस ने अपनी चार्जशीट में ही मुझको आरोप मुक्त कर दिया। और इलाहाबद हाइकोर्ट ने हमको राहत दी, जिसके बाद हमारी गिरफ्तारी पर रोक लगी। लगभग पांच साल अदालत और प्रेस कॉउंसिल ऑफ इंडिया में अपनी गुहार रखने के बाद मेरे पिता को बाइज्ज़त आरोप मुक्त किया गया और अख़बार को दोबारा प्रकाशित करने की अनुमति मिली। जिस शख़्स ने अपने पूरे जीवन काल में किसी थाने या अदालत का मुंह तक न देखा हो उनको अपने बेटे की पत्रकारिता के वजह से लगभग पांच साल अदालत में चक्कर काटने पड़े।

हमारी सिर्फ इतनी ग़लती थी कि हमने पत्रकारिता के मानदंड के मुताबिक कुछ घपले घोटालों और सरकारी मशीनरी की लूट को बेनक़ाब किया था।

पुलिस ने एफआईआर दर्ज की लेकिन ऊपर वाले का शुक्र रहा कि एक मिनट के लिए भी न तो थाने की शक्ल देखी न कोई गिरफ्तारी हुई। जिसको आईओ बनाया गया उसने थोड़ी बहुत पुलिसिया गुंडागर्दी दिखानी चाही तो ऊपर वाले उसको बहुत ही बड़ी सज़ा दे डाली। साथ ही भले ही इंसाफ पाने में कई साल लगे हों लेकिन अदालत ने बाइज्जत बरी करके हमारे ज़ख़्मों को मरहम भी लगा दिया। प्रेस कॉउंसिल ऑफ इंडिया ने हमारे अखबार को भी दोबारा प्रकाशित करने की राह आसान कर दी।

लेकिन इस सबके बावजूद आज फिर उन तथाकथित पत्रकारों और चौथे स्तंभ के दावेदारों की कायरता और नामर्दी पर शर्म आ रही है, जो उस दिन ख़ामोश रहे। प्रेस का गला घोंटा गया और मोटा विज्ञापन और रात को पुलिस से एक बोतल पाने वाले मीडिया हाउस और कथित पत्रकार मुंह पर टेप लगाए हमारी हमदर्दी का ढोंग करते रहे। निजी तौर पर कई कथित बड़े पत्रकारों को मैने जब फोन किया तो उन्होने अपनी मजबूरी भी बताई।

लेकिन एनडीटीवी पर एक दिन का बैन को सुन कर एक बार फिर लगा कि काश उस दिन एनडीटीवी या कोई कथित बहादुर मीडिया हाउस एक पत्रकार के कमज़ोर और उभरते हुए मडिया हाउस की भ्रूण हत्या के खिलाफ बोलने की हिम्मत करता तो शायद आज जैसी घटनाओं को दोहराने से पहले सोचा जाता। हमें एनडीटीवी पर लगे बैन पर उतना ही दुख है जितना अपने अखबार पर कई साल तक बैन रहने का। लेकिन सवाल वही है कि किसी एक के दमन पर चुप रने वालों को अपने लिए भी उस दमनचक्र का इंतज़ार करना चाहिए।

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आज़ाद ख़ालिद टीवी जर्नलिस्ट हैं, सहारा समय, इंडिया टीवी, वॉयस ऑफ इंडिया, इंडिया न्यूज़ सहित कई नेश्नल न्यूज़ चैनलों में महत्वपूर्ण पदों पर कार्य कर चुके हैं। Read more

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